बालोद। भारत में "धान के कटोरा" कही जानी वाली धरा पर याने की छत्तीसगढ़ प्रदेश में धान की कटाई अब अंतिम दौर पर है। प्रदेश के ग्रामीण वाशिंदे जिनकी जीविका; कृषि और कृषि से जुड़े उत्पाद पर निर्भर है, उनके लिए धान के खेती एक त्यौहार की तरह है और सबसे बड़ी बात यह है, कि प्रदेश के सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए भी किसानों की यह खेती-किसानी की त्यौहार समय-समय पर नफा और नुकसानदेह साबित हुए है। इसलिए प्रदेश के राजनीती में प्रदेश के किसान और खेतिहर मजदूरो की मुद्दे सालो से उबाल मारते हुए आज भी राजनीतिक बिसात की मुख्य मोहरा है। जिसे जितने वाली राजनीतिक दल प्रदेश की सत्ता पर काबिज होती है। इतिहास गवाह है, प्रदेश के किसानों को जिस राजनीतिक दल ने नाराज किया उसकी सत्ता से बेदखली तय है, चाहे वह प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री रहे स्व: अजित जोगी हो या फिर पूर्व मुख्यमंत्री डां: रमन सिंह। इनके सरकारों को सत्ता से पीछे ढकलने में प्रदेश के किसान और मजदूरों का बहुत बड़ी हाथ माना जाता है। अब देखने वाली बात यह है, कि प्रदेश में इन दोनों कांग्रेस की सरकार है, जिसके मुखिया को प्रदेश की जनता किसान पुत्र या माटी पुत्र की संज्ञा से नवाजते है। इसका मुख्य कारण भूपेश बघेल के नेतृत्व में किसानों के हितो से संबंधित लिए गये फैसले भी हो सकते है।
प्रदेश के किसानों को मौजूदा सरकार, धान की प्रति क्विंटल 2500 सौ रूपये जो चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था; उसे पूरा करने के लिये लगातार प्रयासरत है, हालांकि विरोधी दल प्रदेश के सरकार और कांग्रेस पार्टी पर प्रदेश की जनता और किसानों के साथ धोखा करने का आरोप भी लगा रहे हैं। खैर राजनीतिक दलो के राजनितिक बिसात कब, कैसे, कितना और कहाँ लागू हो जाए ये उन्ही पर छोड़ते हुए आगे चलते हैं' और प्रदेश के 2500 क्विंटलधारी किसानों की बात करते है जिनके परिश्रम की पाराकाष्ठा से प्रभावित होकर हम अपनी कलम की स्याही बहा रहे है। आपको बताते चलें की दिनांक 26 नवंबर 2020 को देश के लगभग दस केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों एवं तमाम स्वतंत्र फेडरेशनो ने केन्द्र सरकार के श्रमिक विरोधी एवं जन विरोधी नीतियों के खिलाफ एक दिवसीय राष्ट्रीय हड़ताल की घोषणा की है। हमारे सुधी पाठक; तनिक भी चिंता ना करें हम आपको हड़ताल में लेकर नही जा रहे है, बल्कि हम आपको यह बताने के लिए इस हड़ताल की जिक्र यहाँ पर किया है, दरअसल छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कृषी सेक्टर एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रदेश की आधी आबादी से ज्यादा बासिन्दो की जीवन लीला खेती और किसानी से जुड़ी हुई है। अब आप आसानी से समझ सकते है कि खेती और किसानी से जुड़े हुए कार्य बैगर मजदूर के नही किया सकता है। यहाँ हम आपको बता दे, कि प्रदेश के किसानी में छत्तीसगढ़ के महिला मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका होतीं है। इसे हम इस तरह से भी देख सकते है, पत्थर के सीना को चीरकर देश की सवा करोड़ से ज्यादा देशवासियों के पेट की क्षुधा मिटाने के लिए प्रदेश के खेतिहर महिला मजदूर दिन-रात परिश्रम करके अपने पसीने के दम पर किसानों के खेतों को सिंचकर सोना उगाते है।
प्रदेश के मौजूदा सरकार ने बेसक अपनी चुनावी वादो की पूर्ति हेतु प्रदेश के किसानों की उगाई हुई धान की किमत प्रति क्विंटल 2500 तक कर दी है, लेकिन यह सब करने के बाद में भी यदि कृषि सेक्टर में कार्यरत महिला मजदूरों की एक दिन की रोजी यानी की लगभग आठ से दस घंटे जी तोड़ मेहनत करने के बाद उन्हे मात्र सौ रुपया ही मेहनताना मिले तो यह निश्चित रूप से सरकार की कृषी सेक्टर में की गई मेहनत नाकाफी ही मानी जायेगी या फिर इसे प्रदेश के महिला मजदूर सरकार की चुनाव जितने का राजनीतिक फंडा ही समझकर रह जायेगी यह समय ही तय करेगा।
देखा जाए तो देश और प्रदेश के सरकारों ने ग्रामीण भारत के जीवन को अभी तक समझने के दिशा में मानसिक तब्दीली करने के दिशा में फेलेवर साबित हुई हैं यह कहा जाए तो गलत नहीं होगी क्योंकि देखा जाए तो अभी तक किसी भी सरकारों ने खेतिहर मजदूरों के मजदूरी से संबंधित आशाओ को अब तक ना पूरा की है और आगे आने वाले दिनो में पूरी होने की उम्मीद कंही नजर भी नहीं आ रही है तो वहीं केंद्र सरकार ने पिछले दिनो जो श्रम कानून के नियमों में बदलाव किये हैं उसे लेकर अब श्रमिक संगठन लामबंद कर हड़ताल करने जा रहे है।
![]() |
विनोद नेताम सवाददाता |
देश में दिनो दिन मजदूर और गरीबो की हालत मंहगाई और बेरोजगारी के चलते कमजोर हो रही है तो वंही सत्ताधारियों के करीबियों के दिन बौउरते हुए नजर आ रही है जिसके चलते समाज में असंतुलन की स्थति उत्पन्न होने की आशंका है जिसे हम सभी को समझना होगा और सरकार को मजदुर और पसीने की कीमत समझने के लिए मजबूर करना होगा ताकि समाज में समानता का अधिकार सदैव बने रहे।